इस संसार में जब कोई भी प्राणी जिस पल मे जन्म लेता है, वह पल (समय) उस प्राणी के सारे जीवन के लिए अत्यन्त ही महत्वपुर्ण माना जाता है। क्यों की उसी एक पल को आधार बनाकर ज्योतिष शास्त्र की सहायता सें उसके समग्र जीवन का एक ऐसा लेखा जोखा तैयार किया जा सकता है, जिससे उसके जीवन में समय समय पर घटने वाली शुभ अशुभ घटनाऔं के विषायमें समय से पूर्व जाना जा सकता है। जन्म समय के आधार पर बनायी गयी जन्म कुंडली के बारह भाव स्थान होते है । जन्मकुडली के इन भावों में नवग्रहो की स्थिती योग ही जातक के भविष्य के बारे में सम्पुर्ण जानकारी प्रकट करते है। जन्मककुंडली के विभिन्न भावों मे इन नवग्रहों कि स्थिति और योग से अलग अलग प्रकार के शुभ अशुभ योग बनते है। ये योग ही उस व्यिक्ति के जीवन पर अपना शुभाशुभ प्रभाव डालते है।
जन्म कुंडली में जब सभी ग्रह राहु और केतु के एक ही और स्थित हों तो ऐसी ग्रह स्थिती को कालसर्प योग कहते है। कालसर्प योग एक कष्ट कारक योग है। सांसरिक ज्योततिषशात्र्य में इस योग के विपरीत परिणाम देखने में आते है।
जाने अन्जाने में किए गए कर्मो का परिणाम दुर्भाग्य का जन्म होता है। दुर्भाग्य चार प्रकार के होते है- अधिक परिश्रम के बाद भी फल न मिलना धन का अभाव बने रहना। शारीरीक एवं मानसिक दुर्बलता के कारण निराशा उत्पन्न होती है। अपने जीवीत तन का बोझ ढाते हुए शीघ्र से शीघ्र मृत्युत की कामना करता है। संतान के व्दारा अनेक कष्ट मिलते है बदचनल एवं कलहप्रिय पति या पती का मिलना है। उपरोक्त दुर्भाग्य के चारों लक्षण कालसर्प युक्त जन्मांग में पूर्ण रूप से दृष्टिगत होते है।
कालसर्प योग से पिडित जातक दुर्भाग्य से मूक्ति पाने के लिए अनेक उपायो का सहारा लेता है वह हकीम वैदय डॉक्टुरों के पास जाता है। धन प्राप्ति के अनेक उपाय करता है बार बार प्रयास करने पर भी सफलता नही मिलने पर अंत में उपाय ढुंढने के लिए वह ज्योतिषशात्र्य का सहारा लेता है।अपनी जन्म पत्री मे कौन कौन से दोष है कौन कौन से कुयोग से है उन्हें तलाशता है पुर्वजन्मि के पितृशाप, सर्पदोष, भातृदोष ब्रम्हडदोष आदि दोष कोई उसकी कुंडली में है - कालसर्प योग।
कोई माने या न माने कालसर्प योग होता है। किसी के मानने या न मानने से शास्त्री य सिध्दांत न कभी बदले थे औ न ही बदलेंगे । शात्र्य आखिर शात्र्य हैं इसे कोई माने या न माने इससे कोई अन्तर नही पडता । कालसर्प योग प्रमाणित है इसे प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ज्योतिष शात्र्यों का अध्ययन करने वाले आचार्यां ने सर्प का मूख राहु और पुंछ केतु इन दोनों के मध्यं में सभी ग्रह रहने पर उत्पन्न होने वाली ग्रह स्थिती को कालसर्प योग कहा है । यह कालसर्प योग मुल रुप से सर्पयोग का ही स्वरूप है। जातक के भाग्य का निर्णय करने में राहु केतु का महत्वपुर्ण योगदान है। तभी तो विंशोत्तरी महादशा में 18 वर्ष एवं अष्टोत्तेरी महादशा मे 12 वर्ष राहु दशा के लिए हमारे आचार्या ने निर्धारित किए है। दो तमोगूणी एवं पापी ग्रहो के बीच अटके हुए सभी ग्रहो की स्थिती अशुभ होती है । कालसर्प योग से पिडित जातक का अल्पायु होना, जीवनसंघर्षपुर्ण रहना, धनाभाव बने रहना, भौतिक सुखौ की कमी राहना ऐसे फल मिलते है। नक्षत्र पध्दति के अनुसार राहु या केतु के साथ जो ग्रह हों और एक ही नक्षत्र में हो तो अशूभ परिणामों की तीव्रता कम होती है। राहु केतु छायाग्रह होते हुए भी नवग्रहो में उनको स्थान दिया गया है । दक्षिण में राहुकाल सर्व शुभ कार्यों के लिए वर्जित माना है।